राजस्थान में बदल सकता है दो बच्चों का नियम, तीन संतान पर लगे प्रतिबंध को हटाने की तैयारी
जयपुर। राजस्थान की राजनीति में बड़ा बदलाव संभव है। पंचायती राज और शहरी निकाय चुनावों में दो से अधिक संतान वाले व्यक्तियों पर लगी अयोग्यता की शर्त को राज्य सरकार जल्द खत्म कर सकती है। यह वही प्रावधान है जिसके तहत तीन बच्चों वाले व्यक्ति सरपंच, पंच या पार्षद नहीं बन सकते थे। अब सरकार इस नियम में संशोधन पर गंभीरता से विचार कर रही है।
स्वायत्त शासन एवं नगरीय विकास मंत्री झाबर सिंह खर्रा ने पुष्टि की है कि सरकार इस विषय पर चर्चा कर रही है। उन्होंने कहा, “जब सरकारी कर्मचारियों को तीसरी संतान की छूट मिल चुकी है, तो जनप्रतिनिधियों के साथ भेदभाव क्यों?”
मुख्यमंत्री से हुई चर्चा, विभागों से मंगाई रिपोर्ट
मंत्री खर्रा ने बताया कि मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा से इस मुद्दे पर प्रारंभिक चर्चा हो चुकी है और पंचायती राज एवं स्वायत्त शासन विभागों से अनौपचारिक रिपोर्ट मांगी गई है। उन्होंने कहा कि सरकारी कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों दोनों का उद्देश्य सार्वजनिक सेवा है, इसलिए नियमों में समानता होनी चाहिए।
सरकार के सूत्रों के अनुसार, संबंधित विभागों से राय लेने के बाद इस प्रस्ताव पर कैबिनेट स्तर पर विचार किया जाएगा। यदि निर्णय होता है, तो अगले पंचायत चुनावों (2025-26) से पहले राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 में संशोधन किया जा सकता है।
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भैरोंसिंह शेखावत सरकार में बना था नियम
यह प्रावधान पहली बार 1994-95 में तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत की सरकार ने लागू किया था।
इसमें यह तय किया गया था कि—
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दो से अधिक संतान वाले व्यक्ति पंचायत या निकाय चुनाव नहीं लड़ सकते।
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अगर चुनाव जीतने के बाद तीसरा बच्चा पैदा होता है, तो पद से अयोग्यता घोषित कर हटाया जा सकता है।
हालांकि, उस तय तिथि से पहले हुए बच्चों पर यह नियम लागू नहीं होता था।
कर्मचारियों को पहले ही मिल चुकी है राहत
2002 में सरकारी कर्मचारियों के लिए भी ऐसा ही नियम लागू किया गया था। उस समय
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तीसरा बच्चा होने पर पदोन्नति (प्रमोशन) पांच साल तक रोकी जाती थी।
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तीन से अधिक बच्चों पर अनिवार्य सेवानिवृत्ति का प्रावधान था।
लेकिन 2018 में वसुंधरा राजे सरकार ने इस नियम में शिथिलता दी और अब कर्मचारियों पर तीसरी संतान की कोई बाध्यता नहीं है।
विधानसभा और राजनीतिक हलकों में भी उठी आवाज
यह मुद्दा हाल ही में राजस्थान विधानसभा में भी उठा था। चित्तौड़गढ़ विधायक चंद्रभान सिंह आक्या ने सवाल किया था कि जब सांसदों और विधायकों पर ऐसी रोक नहीं है, तो पंचायत प्रतिनिधियों पर क्यों?
संसदीय कार्यमंत्री जोगाराम पटेल ने जवाब में कहा था कि यह गंभीर मुद्दा है और विचाराधीन है।
2019 में भी पूर्व मंत्री हेमाराम चौधरी ने इसी नियम को “संविधान की भावना के विरुद्ध” बताया था।
क्या कह रहे हैं विशेषज्ञ और जनप्रतिनिधि
कई सामाजिक संगठनों और पंचायत प्रतिनिधियों का कहना है कि राज्य में जन्म दर घट रही है, इसलिए अब इस नियम की आवश्यकता नहीं रह गई है।
गांवों में बड़ी संख्या में सक्षम उम्मीदवार इस कानून की वजह से चुनाव नहीं लड़ पाते।
हालांकि, कुछ विशेषज्ञों का मत है कि जनसंख्या नियंत्रण की भावना को देखते हुए यह प्रावधान सही है, क्योंकि जनप्रतिनिधि समाज के रोल मॉडल माने जाते हैं।
