सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को वैवाहिक संपत्ति वापस पाने का कानूनी हक
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट कर दिया है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं शादी के दौरान दी गई नकदी, सोना, गहने और अन्य उपहारों को अपनी पूर्ण व्यक्तिगत संपत्ति के रूप में दावा कर सकती हैं। अदालत ने कहा कि विवाह के समय महिला या उसके पति को जो भी संपत्ति दी गई हो, तलाक के पश्चात उसे महिला को सौंपना अनिवार्य है।
अदालत की टिप्पणी: समानता और गरिमा सर्वोपरि
न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की दो-न्यायाधीशों वाली पीठ ने यह स्पष्ट किया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की व्याख्या करते समय संविधान द्वारा प्रदत्त समानता, गरिमा और व्यक्तिगत स्वायत्तता के मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
पीठ ने यह भी कहा कि इस अधिनियम को केवल एक नियमित दीवानी विवाद की तरह नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसे ऐसे सामाजिक संदर्भ में लागू करना चाहिए जहां कई महिलाएं अब भी पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों और आर्थिक निर्भरता जैसी वास्तविक चुनौतियों से जूझ रही हैं। अदालत के अनुसार, संविधान का समानता-सिद्धांत न्यायपालिका को यह जिम्मेदारी देता है कि वह सामाजिक न्याय पर आधारित निर्णयों के माध्यम से संरक्षित वर्गों को सशक्त बनाए।
धारा 3 क्यों है निर्णायक
सुप्रीम कोर्ट ने अधिनियम की धारा 3 का विशेष उल्लेख किया, जिसके अनुसार तलाकशुदा मुस्लिम महिला शादी से पहले, शादी के दौरान या बाद में उसे दिए गए सभी उपहारों, नकदी, आभूषणों और संपत्तियों की कानूनी स्वामिनी होती है। चाहे यह संपत्ति उसके माता-पिता, रिश्तेदारों, मित्रों या पति की ओर से दी गई हो, तलाक के बाद उस पर महिला का पूरा अधिकार बनता है और उसे लौटाना अनिवार्य है।
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फैसले का व्यापक प्रभाव
यह निर्णय केवल कानून की व्याख्या नहीं बल्कि समाज में महिला अधिकारों को मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। यह विशेष रूप से उन मुस्लिम महिलाओं के लिए राहत लेकर आया है जिन्हें विवाह के दौरान मिली संपत्ति वापस पाने में अक्सर कानूनी और सामाजिक अड़चनों का सामना करना पड़ता था।
सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश महिलाओं की आर्थिक सुरक्षा, व्यक्तिगत गरिमा और संवैधानिक अधिकारों की पुनर्पुष्टि करता है।
