मद्रास हाई कोर्ट का बड़ा फैसला: पत्नी और मां के भरण-पोषण से भाग नहीं सकते पुरुष
मदुरै – मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै पीठ ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में पति और बेटों की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अलग रह रही पत्नी को पारिवारिक न्यायालय द्वारा दिए गए 21,000 रुपये मासिक भत्ते के आदेश को चुनौती दी थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी पुरुष के लिए उसकी पत्नी और मां की देखभाल करना केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी भी है।
मामला क्या था?
यह मामला एक 60 वर्षीय व्यक्ति और उसके दो बेटों से जुड़ा है, जिनकी आपत्ति थी कि वे इतने बड़े भत्ते का भुगतान नहीं कर सकते। दंपती की शादी वर्ष 1986 में हुई थी और उनके दो बेटे हैं। वर्ष 2015 में महिला ने अपने ससुराल को छोड़ दिया और 2019 में फैमिली कोर्ट में भरण-पोषण का केस दायर किया, जिसमें उन्होंने 40,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ते की मांग की थी।
पारिवारिक न्यायालय का आदेश
मार्च 2025 में मदुरै की फैमिली कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पति और दोनों बेटे मिलकर महिला को 21,000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता दें। इसके विरोध में पति और बेटे मद्रास हाई कोर्ट पहुंचे और दावा किया कि:
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महिला अपनी मर्जी से घर छोड़कर गई थी।
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वह आत्मनिर्भर है और उसे किसी भत्ते की जरूरत नहीं।
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पति की तबीयत ठीक नहीं रहती और अब उसकी कोई नियमित आय नहीं है।
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बेटों का वेतन बेहद सीमित है और वे अतिरिक्त खर्च वहन नहीं कर सकते।
हाई कोर्ट की सख्त टिप्पणी
जस्टिस शमीम अहमद ने तीनों की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि पत्नी और मां का भरण-पोषण करना हर पुरुष का मूल कर्तव्य है। उन्होंने कहा कि:
“पुरुष अपने जीवन में जो कुछ भी बनता है, उसमें उसकी मां और पत्नी का योगदान अतुलनीय होता है। इनकी देखभाल करना न सिर्फ एक जिम्मेदारी है, बल्कि यह उनके प्रति श्रद्धा, कृतज्ञता और संवेदनशीलता का प्रतीक भी है।”
न्यायमूर्ति अहमद ने यह भी कहा कि एक मां की भूमिका की कोई कीमत नहीं हो सकती। वह जिस पीड़ा और त्याग से अपने बच्चों का पालन करती है, उसकी भरपाई किसी भी तरह नहीं की जा सकती।
आदेश में हस्तक्षेप से इंकार
कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय के आदेश को पूरी तरह वैध ठहराया और कहा कि आज की आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए 21,000 रुपये की राशि अत्यधिक नहीं कही जा सकती। अदालत ने इस आदेश में हस्तक्षेप करने से स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया।


