राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 100 वर्षों की यात्रा: समाज की शक्ति से सजीव हुआ राष्ट्र सेवा का संकल्प
नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) ने अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर लिया है। वर्ष 1925 में नागपुर से प्रारंभ हुई यह यात्रा अब सौ वर्षों के पड़ाव पर है। यह केवल एक संगठन का विस्तार नहीं, बल्कि विचार और कर्तव्यनिष्ठा की ऐसी रचना है जिसने भारतीय समाज के कोने-कोने को छुआ है। इस अवसर पर संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने एक विस्तृत लेख के माध्यम से इस यात्रा को साझा किया, जिसमें उन्होंने उन असंख्य लोगों और घटनाओं का उल्लेख किया जो इस युगांतरकारी संगठन की नींव और विस्तार का हिस्सा बने।
संघ की यात्रा: चुनौतियों के बीच समाज के सहयोग से बढ़ता विश्वास
दत्तात्रेय होसबाले के अनुसार, संघ की यात्रा सरल नहीं रही। कई बार संगठन ने विकट परिस्थितियों का सामना किया, लेकिन हर बार समाज के सहयोग से यह कार्य आगे बढ़ा। प्रारंभिक दौर में अप्पाजी जोशी जैसे गृहस्थ कार्यकर्ता, और दादाराव परमार्थ, भाऊराव देवरस, एकनाथ रानडे जैसे प्रचारकों ने डॉ. हेडगेवार के नेतृत्व में संघ कार्य को जीवन व्रत के रूप में स्वीकार किया।
उनका मानना है कि जैसे स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि “चीटियों को शक्कर की पहचान के लिए अंग्रेजी नहीं चाहिए”, वैसे ही भारत का सामान्य जन किसी सात्विक कार्य को सहज रूप से समझ लेता है। यही कारण है कि संघ के विचारों को समाज का स्वाभाविक समर्थन मिलता गया।
परिवारों, मातृशक्ति और समाज की नारी भूमिका
संघ के कार्यकर्ता केवल शाखा तक सीमित नहीं रहे, बल्कि उनके परिवार भी इस यात्रा में सहभागी बने। स्वयंसेवकों की माताएं, बहनें और पत्नियाँ इस कार्य के पीछे एक मजबूत स्तंभ के रूप में खड़ी रहीं। राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना और प्रमिलाताई मेढ़े, मौसी जी केलकर जैसी व्यक्तित्वों का योगदान इस बात का प्रमाण है कि संघ का कार्य महिलाओं की सहभागिता के बिना अधूरा था।
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विचारों से संस्थाओं तक: संघ प्रेरणा से खड़े हुए संगठन
संघ से प्रेरित होकर दत्तोपंत ठेंगड़ी, दीनदयाल उपाध्याय, एकनाथ रानडे, यशवंतराव केलकर आदि ने विभिन्न सामाजिक और वैचारिक संगठनों की स्थापना की। ये संगठन आज शिक्षा, श्रम, संस्कृति, ग्राम विकास और आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभा रहे हैं।
राष्ट्रीय मुद्दों पर स्पष्ट दृष्टिकोण और साहसिक हस्तक्षेप
संघ ने अपने सौ वर्षों के दौरान राष्ट्रहित के कई प्रमुख मुद्दों पर अपना स्पष्ट और साहसी रुख अपनाया।
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1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हो या
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1981 में मीनाक्षीपुरम मतांतरण का विरोध,
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गौहत्या बंदी आंदोलन या
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राम जन्मभूमि का मुद्दा,
हर अवसर पर संघ ने न केवल स्वयं सक्रियता दिखाई, बल्कि संतों, धार्मिक नेताओं और विभिन्न विचारधाराओं के लोगों को भी साथ लाकर एकता का संदेश दिया।
प्रसिद्ध संन्यासी स्वामी चिन्मयानंद, मास्टर तारा सिंह, बौद्ध भिक्षु कुशोक बकुला, जैन मुनि सुशील कुमार जी, सिख गुरु जगजीत सिंह जैसे कई धार्मिक नेता इस साझे प्रयास का हिस्सा रहे।
आपातकाल और प्रतिबंधों के समय भी नहीं रुका संघ कार्य
देश की आजादी के बाद जब राजनीतिक कारणों से संघ पर प्रतिबंध लगाया गया, और बाद में आपातकाल के दौर में संगठन पर संकट आया, तब भी समाज के प्रतिष्ठित लोगों और सामान्य जन ने संघ के पक्ष में खड़े होकर समर्थन प्रदान किया। इन विपरीत परिस्थितियों में भी संघ कार्य रुकने के बजाय और मजबूत हुआ।
शताब्दी वर्ष: समाज से जुड़ने और राष्ट्र निर्माण का नया चरण
अब जब संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है, तो वह इस अवसर को केवल उत्सव के रूप में नहीं देख रहा, बल्कि समाज के साथ गहरे संपर्क का संकल्प ले रहा है।
संघ के स्वयंसेवक अब घर-घर जाकर संपर्क स्थापित करेंगे और देश के हर वर्ग, हर क्षेत्र तक पहुँचकर राष्ट्र निर्माण के अभियान को और सशक्त बनाएंगे।
दत्तात्रेय होसबाले ने स्पष्ट किया कि आने वाले वर्षों में संघ का उद्देश्य सज्जन शक्ति को संगठित कर राष्ट्र के सर्वांगीण विकास को दिशा देना होगा।
निष्कर्ष:
संघ की यह सौ साल की यात्रा केवल संगठन विस्तार की नहीं, बल्कि भारतीय समाज के हर वर्ग के साथ गहरे जुड़ाव और निरंतर सामाजिक परिवर्तन की यात्रा रही है। परिवार, समाज, संत, विचारक, नारी शक्ति और सामान्य जन—सभी इस विचार-प्रवाह के सहभागी रहे हैं। शताब्दी वर्ष, इस जुड़ाव को और सशक्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर बनेगा।


