मोहन भागवत के ‘हिंदू राष्ट्र’ बयान पर गरमाई राजनीति, कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने
नई दिल्ली | 27 अगस्त 2025:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत के ‘हिंदू राष्ट्र’ और ‘डीएनए एक समान’ वाले बयान ने देश की राजनीति में नई बहस छेड़ दी है। जहां भाजपा और संघ के समर्थकों ने इस बयान का स्वागत किया है, वहीं कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने तीखी आलोचना करते हुए आरोप लगाया है कि यह बयान देश को धार्मिक आधार पर विभाजित करने की कोशिश है।
क्या कहा था मोहन भागवत ने?
नई दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए RSS प्रमुख मोहन भागवत ने कहा,
“हिंदू राष्ट्र की अवधारणा का सत्ता से कोई संबंध नहीं है। इसका उद्देश्य किसी को बहिष्कृत करना नहीं है।”
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उन्होंने आगे कहा कि
“पिछले 40,000 वर्षों से अखंड भारत में रहने वाले सभी लोगों का डीएनए एक जैसा है। हम सब एक ही मूल के हैं।”
भाजपा ने भागवत के बयान का समर्थन किया
भाजपा नेताओं ने भागवत के इस बयान को समावेशिता और सांस्कृतिक एकता का संदेश बताया।
बिहार के उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी ने कहा,
“भारत का निर्माण हर समुदाय ने मिलकर किया है। कुछ ने पूजा पद्धति बदली, लेकिन वे भारतीय ही हैं। भारत सनातन का परिणाम है, न कि उल्टा।”
भाजपा प्रवक्ताओं ने इसे “भारत की विविधता में एकता” की विचारधारा बताते हुए राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बताया।
कांग्रेस ने बयान को बताया ‘राजनीतिक छलावा’
कांग्रेस सांसद इमरान मसूद ने आरोप लगाया,
“RSS जो कहती है, वो करती नहीं। यही संगठन है जिसने भाषा, जाति और धर्म के नाम पर नफरत की नींव रखी।”
कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नाना पटोले ने कहा,
“RSS और भाजपा इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। भगत सिंह, गांधी, पटेल जैसे नेताओं का बलिदान भुलाकर यह संगठन झूठ पर राष्ट्रवाद की इमारत खड़ी कर रहा है।”
कांग्रेस नेताओं का आरोप है कि ये बयान 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले धार्मिक ध्रुवीकरण की रणनीति का हिस्सा है।
राजनीतिक विश्लेषण: विचारधारा बनाम बयानबाजी
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि मोहन भागवत का बयान एक तरफ संघ की बदली हुई रणनीति को दर्शाता है, जिसमें वह खुद को सर्वसमावेशी और आधुनिक दिखाने की कोशिश कर रहा है, वहीं विपक्ष इसे “छवि सुधार की आड़ में राजनीतिक एजेंडा” बता रहा है।
‘हिंदू राष्ट्र’ शब्द की संवेदनशीलता पर उठे सवाल
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आलोचकों का कहना है कि ‘हिंदू राष्ट्र’ जैसी परिभाषाएं भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान से मेल नहीं खातीं।
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जबकि समर्थक इसे संस्कृति आधारित राष्ट्रवाद बताते हैं, न कि धार्मिक कट्टरता।
निष्कर्ष
मोहन भागवत का यह बयान राजनीतिक, वैचारिक और सामाजिक स्तर पर बहस को और गहरा करता है।
भले ही उन्होंने ‘हिंदू राष्ट्र’ को समावेशी और सत्ता से अलग बताया हो, लेकिन विपक्ष इस पर भरोसा करने को तैयार नहीं।
आने वाले दिनों में यह मुद्दा सियासी और चुनावी रणनीति का अहम हिस्सा बन सकता है।