सुल्तान साहब
-ऋद्धिका आचार्य
एक रोज मेरा देश के जाने-माने नगमाकार सुल्तान साहब से मिलना हुआ, वह भी एक ऐसी जगह जहां उनसे भेंट की उम्मीद बिल्कुल ना थी। सुबह करीब 7ः00 बजे मैं फुटपाथ पर टहल रहा था।वही एक बेंच पर सुल्तान साहब बैठे थे ।उनकी नजर पास ही में लगे पेड़ पर टिकी थी शायद उस पर बैठी कोयल की आवाज में खोए थे। जब मेरी नजर उनके चेहरे पर पड़ी, तो उनकी हर शायरी और उस में छुपे सैकड़ों तरह के स्वाद, एक क्षण में मेरे समक्ष आ खड़े हुए। उनके हर छंद में छुपा तन्हाई का दर्द आज मैंने दो आंखों में देखा। साधारण वेशभूषा,सुफै़द दाढ़ी और नरम आंखों ने मुझे एक बार फिर उनकी शख्सियत का कायल बना दिया। मैं उनसे बात किए बिना ना रह सका। मैंने उनके सामने जाकर झुक कर उन्हें सलाम किया,तब याराना अंदाज में उन्होंने मेरे गले में हाथ डाल कर कहा-,‘‘अरे आओ दोस्त! मेरे पास बैठो!‘‘ बेंच पर अपने पास मुझे बैठाया।
‘‘हम आपके दीवाने है।‘‘ मैंने कहा, तो उन्होंने कृतज्ञता हंसकर जाहिर की। ‘‘कैसे लिख लेते हो आप? शब्दों में सुकून इतना, भावों में जुनून इतना। आपकी हर रचना में इतनी ताकत कैसे आती है कि शब्द ही पहचान बन जाए !” इस पर सुल्तान साहब ने हमारे ठीक सामने लगे पेड़ की तरफ उंगली करते हुए कहा-,‘‘वह फकीर देख रहे हो?‘‘ (मैंने नजर घुमाई वह फकीर पेड़ के नीचे बैठा था।) ‘‘मैंने कहा वह जो सब को भविष्य बताता है?‘‘ ‘‘हां।‘‘ उन्होंने कहा। ‘‘कहते हैं कि वह बहुत सही बताता है।‘‘ मेरी बात सुनकर उन्होंने क्षणिक विराम के साथ प्रश्न किया-,‘‘ वह इतना क्यों माना जाता है?‘‘ ‘‘क्योंकि वह सच बोलता है।‘‘ मैंने कहा तो वह गर्दन झुका कर हंस पड़े। फिर अपनी जेब से पेन निकाल कर मुझे दिखाते हुए बोले-,‘‘ बस यही ताकत है इस कलम में यह सच कहती है।”
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‘‘पर सुल्तान साहब सच तो कड़वा होता है फिर आपके अल्फाज इतने मधुर कैसे?‘‘ मेरी बात सुन उनकी आंखों में एक क्षण के लिए मानो कोई शायरी दौड़ी। ‘‘इसी का तो नाम कविता है, नज्म है, शायरी है। यह चाहे तो करेले को मीठा और शहद को कड़वा कहला सकती है।” सुल्तान साहब की बातें मैं कुछ यूं सुन रहा था मानो कोई रो एजेंट अपने अफसर से खुफिया रिपोर्ट ले रहा हो। मैं सोचने लगा कि क्यों ना मैं भी सुल्तान साहब की तरह यूं शब्दों से माहौल बनाने का गुर सीख लूं। ‘‘मैंने कहा सुल्तान साहब मुझे क्यों नहीं दिखाई देते यह सच और यह भांति भांति के रस।‘‘ ‘‘उस फकीर की तरह जीवन के चैराहे पर कोने में चुपचाप बैठो कोई गाली बके तो भी चुप, दुआ दे तो भी चुप। ना किसी को जवाब देना,ना किसी से सफाई लेना।उनकी आवाज में दर्द कुछ ऐसा था कि करीब ही उन्होंने कोई जख्म सहा हो। मैं उनकी कोहरे सी आंखों को गौर से देखता रहा। वह समझ गए कि मुझे और सुनना है। पर शायद शायरों का यही अंदाज होता है कि वह अपनी निजी बातें सरलतम रूप में साझा नहीं करते। फिर भी उन्होंने मुद्दे की बात मुझे बताई-,‘‘खर्च करने के लिए जमा करना भी तो जरूरी है। यहां भावों की बर्फ जमती है। कठोर। कभी दर्दनाक, तो कभी मधुर। जब अल्फाजों की धूप इन भावों को छू जाती है, तो खुद ब खुद गीतों की नदियां बह जाती है।‘‘ इतना कहकर उन्होंने मेरा कंधा थपथपाया और उठकर अकेले ही चल पड़े।
सुल्तान साहब की बातों की हवाई दुनिया में खोया में, कभी सुल्तान साहब को देखता, कभी उस फकीर को। दोनों ही बात के धनी जो कह दिया अमिट है। समझ मुझे इतना आया कि शायर – लेखक अपनी अलग ही दुनिया में रहते हैं। यहीं कहीं इसी दुनिया में होती है, उनकी दुनिया। जो बस वही देख पाते हैं। कभी-कभी एक शायर दूसरे शायर को, अपनी दुनिया से रूबरू करवाता है। बाकी लोग तो बस किस्सों,कहानियों और शेरों में ही देख पाते हैं,वह दुनिया। और जो खो जाते हैं शायरी की इस दुनिया में वह कभी लौट नहीं पाते।
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