पीबीएम ट्रॉमा सेंटर की बदहाली: लापरवाही, संसाधनों की कमी और जिम्मेदारी से भागते डॉक्टर
बीकानेर संभाग के सबसे बड़े पीबीएम अस्पताल का ट्रॉमा सेंटर गंभीर अव्यवस्थाओं का केंद्र बन चुका है। सड़क दुर्घटनाओं और आपात स्थितियों में आने वाले मरीजों की जान यहां इलाज से पहले ही खतरे में पड़ जाती है। अस्पताल का यह अहम विभाग रात के समय केवल रेजिडेंट डॉक्टरों के भरोसे चल रहा है, जबकि वरिष्ठ चिकित्सक वीडियो कॉल पर निर्देश देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं।
रेजिडेंट डॉक्टरों पर सारा बोझ, सीनियर डॉक्टरों की अनुपस्थिति
ट्रॉमा सेंटर के रिकार्ड के अनुसार, रात के समय केवल तीन रेजिडेंट डॉक्टर ड्यूटी पर होते हैं, जिनमें से एक सीएमओ इंचार्ज के रूप में कार्यरत होता है। इस स्थिति में दो डॉक्टरों को ही दर्जनों गंभीर मरीजों की जिम्मेदारी संभालनी पड़ती है। जरूरत पड़ने पर सीनियर डॉक्टरों को ऑन कॉल बुलाया जाता है, लेकिन उनके पहुंचने में लगने वाला समय मरीज के जीवन और मृत्यु के बीच की दूरी तय कर देता है।
सूत्रों के मुताबिक, सीनियर चिकित्सकों को नियम अनुसार दिन में तीन राउंड करने होते हैं, लेकिन अधिकांश डॉक्टर केवल एक राउंड लगाकर चले जाते हैं। शाम और रात के राउंड में तो शायद ही कोई सीनियर डॉक्टर दिखाई देता है। यह स्थिति न केवल अस्पताल की लापरवाही को उजागर करती है, बल्कि आपातकालीन चिकित्सा प्रणाली पर गंभीर सवाल भी खड़े करती है।
उपकरणों की कमी, टूटी स्ट्रेचरें और बेसिक सुविधाओं का अभाव
ट्रॉमा कैजुअल्टी में छह से सात बेड हैं, लेकिन सिर्फ दो मॉनिटर काम कर रहे हैं। उनमें से एक मॉनिटर भी अधूरे रूप में कार्यरत है। बीपी जांचने जैसे सामान्य उपकरण तक उपलब्ध नहीं हैं, जिससे मरीजों को स्ट्रेचर पर ले जाकर अन्य वार्ड के मॉनिटर से जोड़ा जाता है।
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स्ट्रेचर और व्हीलचेयर की हालत इतनी जर्जर है कि मरीज कई बार गिरने से बचते हैं। आवश्यक दवाइयों की भी भारी कमी है और परिजनों को बाजार से दवाएं मंगवानी पड़ती हैं। अस्पताल की यह स्थिति दर्शाती है कि इलाज शुरू होने से पहले ही मरीज और परिजन सिस्टम से जूझ रहे होते हैं।
रात में सोनोग्राफी सेवा बंद, मरीजों की बढ़ती तकलीफ
ट्रॉमा सेंटर में सोनोग्राफी रूम और मशीन मौजूद होने के बावजूद, रात के समय जांच की सुविधा पूरी तरह बंद रहती है। गंभीर हालत वाले मरीजों को स्ट्रेचर पर लादकर मर्दाना अस्पताल के कमरा नंबर 22 तक ले जाया जाता है। जांच तक पहुंचने में होने वाली देरी कई बार मरीज की जान ले लेती है। यह स्थिति स्वास्थ्य विभाग की संवेदनहीनता का स्पष्ट उदाहरण है।
स्टाफ की कमी से मरीजों और परिजनों के बीच टकराव
कर्मचारियों की कमी के कारण ट्रॉमा सेंटर में अक्सर मरीजों के परिजन और स्टाफ के बीच तनाव की स्थिति बन जाती है। कई बार विवाद और मारपीट तक की नौबत आ जाती है। यह झगड़े किसी व्यक्ति विशेष की गलती नहीं, बल्कि व्यवस्था की कमियों का परिणाम हैं। स्टाफ की संख्या इतनी कम है कि डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ हर मरीज को पर्याप्त समय नहीं दे पाते।
निरीक्षण के बाद भी सुधार नहीं, निर्देश सिर्फ कागजों में
कुछ समय पहले मेडिकल कॉलेज प्राचार्य डॉ. सुरेंद्र वर्मा ने ट्रॉमा सेंटर का निरीक्षण किया था और तत्काल सुधार के निर्देश दिए थे। उन्होंने 24 घंटे सोनोग्राफी सुविधा शुरू करने का स्पष्ट आदेश दिया, परंतु हालात जस के तस बने हुए हैं। न तो अतिरिक्त स्टाफ तैनात हुआ और न ही उपकरणों की स्थिति सुधरी।
सवाल जिम्मेदारों से
अगर पीबीएम जैसा प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल अपने ट्रॉमा सेंटर को भी व्यवस्थित नहीं रख पा रहा, तो फिर गंभीर मरीजों की सुरक्षा की गारंटी कौन देगा?
कब तक वीडियो कॉल पर निर्देश चलेंगे और मरीज टूटे स्ट्रेचर पर जिंदगी और मौत से जूझते रहेंगे?






