राजनीति में वापसी की ओर वसुंधरा राजे? मोहन भागवत से मुलाकात के गहरे निहितार्थ
जयपुर।
राजस्थान बीजेपी की राजनीति में इन दिनों सन्नाटा है, लेकिन अंदरखाने हलचल तेज हो चुकी है। पार्टी के वरिष्ठ चेहरे वसुंधरा राजे की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। सवाल यही है—क्या वसुंधरा का सियासी वनवास अब समाप्त होने वाला है?
मोहन भागवत से ’20 मिनट’ की मुलाकात और बड़ा संदेश
बीते बुधवार को जोधपुर प्रवास के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मोहन भागवत से करीब 20 मिनट की मुलाकात ने राजनीतिक हलकों में खलबली मचा दी है। यह बैठक ऐसे वक्त पर हुई है जब बीजेपी नेतृत्व और संघ के बीच नए समीकरण बनते दिख रहे हैं। यह मुलाकात इसलिए भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है क्योंकि इससे ठीक एक सप्ताह पहले धौलपुर में वसुंधरा ने वनवास शब्द का उल्लेख करते हुए कहा था—
“जीवन में हर किसी का वनवास होता है, लेकिन वह स्थायी नहीं होता। वनवास आएगा तो जाएगा भी।”
वनवास के संकेत से लेकर संगठन में सक्रियता तक
इस बयान के बाद वसुंधरा राजे की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से संसद में मुलाकात भी सामने आई थी, जिससे हाईकमान के साथ रिश्तों में नई ऊर्जा के संकेत मिले। अब संघ प्रमुख से उनकी सीधी मुलाकात एक नई राजनीतिक संभावनाओं को जन्म दे रही है।
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RSS और बीजेपी: निर्णायक समीकरण
हालांकि मोहन भागवत सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि संघ बीजेपी के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देता। उनका बयान—
“RSS कुछ तय नहीं करता, हम सलाह देते हैं। सरकार चलाने में वे एक्सपर्ट हैं और हम अपने काम में।”
—इस बात की पुष्टि करता है। लेकिन राजनीतिक जानकार मानते हैं कि वास्तविकता इससे कुछ अलग है। संघ की सहमति या असहमति पार्टी के निर्णयों को प्रभावित करती है, विशेषकर नेतृत्व के चयन में।
बीजेपी की सियासत और महिला नेतृत्व की जरूरत
बीजेपी ने हाल ही में संसद में महिला आरक्षण विधेयक पारित कर ‘नारी शक्ति’ को प्राथमिकता देने का संदेश दिया था। ऐसे में पार्टी के लिए वसुंधरा राजे जैसा अनुभवी और जनाधार वाला महिला चेहरा राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
राजे के पास क्या हैं मजबूत ताश के पत्ते?
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मजबूत जनाधार: वसुंधरा का राजस्थान में सामाजिक समीकरणों पर पकड़ मजबूत रही है। उन्होंने खुद को “राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन” बताकर सभी वर्गों में स्वीकार्यता बनाई।
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अनुभव: दो बार मुख्यमंत्री, दो बार प्रदेशाध्यक्ष, पांच बार सांसद और केंद्र में मंत्री—वसुंधरा के पास संगठन और सरकार दोनों का लंबा अनुभव है।
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संघ से संबंधों में सुधार: लंबे समय तक उपेक्षित रहने के बाद भी वसुंधरा ने कभी सार्वजनिक रूप से असंतोष नहीं जताया। इसके बजाय, उन्होंने संघ और पार्टी के साथ रिश्तों को संतुलित बनाए रखा।
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राष्ट्रीय अध्यक्ष की दावेदारी: बीजेपी में अब तक कोई महिला राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनी है। वसुंधरा राजे इस भूमिका की प्रमुख दावेदार मानी जा रही हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों की राय
राजनीतिक विश्लेषक मनीष गोधा मानते हैं कि राजे और भागवत की मुलाकात सामान्य नहीं हो सकती। उन्होंने कहा—
“इस स्तर की वन-टू-वन बातचीत का मतलब है कि कोई अहम मुद्दा एजेंडे में जरूर रहा होगा। वसुंधरा की दावेदारी को इससे मजबूती मिल सकती है, खासकर राष्ट्रीय स्तर पर।”
वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन कहते हैं—
“राजे ने अब तक बेहद संयम और शालीनता के साथ खुद को स्थापित रखा है। उन्होंने बिना विरोध किए अपने ‘विषपान’ को स्वीकार किया और यह दिखाया कि वे कितनी परिपक्व और रणनीतिक नेता हैं।”
संघ की भूमिका और वसुंधरा की रणनीति
राजनीति के जानकारों का मानना है कि वसुंधरा ने संघ की कार्यशैली को अपनाते हुए भीतर से काम किया है। उन्होंने खुद को फ्रंटफुट पर नहीं रखा, लेकिन अपने समर्थकों—विधायकों और सांसदों—को एकजुट बनाए रखा है।
क्या वसुंधरा बनेंगी राष्ट्रीय अध्यक्ष?
भाजपा के इतिहास में अब तक किसी महिला को राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं बनाया गया है। ऐसे में महिला आरक्षण कानून के बाद पार्टी के पास यह सुनहरा मौका है कि वह महिला नेतृत्व को राष्ट्रीय पहचान दे। वसुंधरा राजे इसके लिए सर्वाधिक उपयुक्त चेहरा मानी जा रही हैं—अनुभव, जनाधार, संगठन और रणनीति—हर कसौटी पर वे खरी उतरती हैं।
निष्कर्ष: क्या लौटेगा ‘राजसी वनवास’?
मोहन भागवत और वसुंधरा राजे की मुलाकात सिर्फ एक शिष्टाचार भेंट नहीं है। यह बीजेपी के आने वाले नेतृत्व, महिला सशक्तिकरण और संघ-पार्टी के बदलते समीकरणों की ओर संकेत करती है।