सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को एक संवैधानिक बहस की शुरुआत हुई, जिसमें यह तय किया जाना है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों को विधेयकों पर हस्ताक्षर करने के लिए एक निश्चित समयसीमा में बाध्य किया जा सकता है। यह मामला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगने के बाद उठाया गया है। इस अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से किसी संवैधानिक या विधायी मुद्दे पर सलाह मांग सकती हैं।
राष्ट्रपति ने क्यों भेजा रेफरेंस?
इस वर्ष अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा था कि राज्यपाल को विधेयकों पर ‘जितनी जल्दी संभव हो’ कार्रवाई करनी होगी और यदि बिल राष्ट्रपति को भेजा जाता है, तो राष्ट्रपति को तीन महीनों के भीतर निर्णय लेना होगा। इसके पश्चात, राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से कुल 14 सवाल पूछे हैं, जिनमें यह भी शामिल है कि क्या अदालत समयसीमा निर्धारित कर सकती है और अनुच्छेद 200 और 201 की व्याख्या कैसे की जाए।
सुप्रीम कोर्ट की प्रारंभिक टिप्पणी
मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अनुपस्थिति में न्यायमूर्ति बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनवाई की शुरुआत की। अदालत ने पूछा, “जब स्वयं राष्ट्रपति ने राय मांगी है तो इसमें आपत्ति किस बात की है?” पीठ ने स्पष्ट किया कि वह इस समय केवल परामर्श दे रही है, न कि कोई अंतिम निर्णय सुनाने जा रही है।
केंद्र सरकार का पक्ष
केंद्र सरकार ने अपना लिखित पक्ष रखते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय के लिए समयसीमा में बांधना संविधान में शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ होगा। ऐसा करना कार्यपालिका के अधिकारों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप माना जाएगा, जो संविधान की मूल संरचना को प्रभावित करेगा।
- Advertisement -
राज्यों की आपत्ति
तमिलनाडु और केरल सरकारों ने इस रेफरेंस को चुनौती दी है। वरिष्ठ अधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल ने दलील दी कि अनुच्छेद 200 और राज्यपाल की भूमिका पर पहले ही सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले मौजूद हैं, जिनमें यह स्पष्ट किया गया है कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं। ऐसे में इस रेफरेंस को स्वीकार करना पहले से तय कानून को दोबारा खोलने की कोशिश होगी।
तमिलनाडु की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि यह रेफरेंस दरअसल पुराने फैसले के विरुद्ध अपील जैसा है, जिसे एक परामर्श के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। उन्होंने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट की अखंडता को बनाए रखने के लिए इस प्रकार के संदर्भ स्वीकार नहीं किए जाने चाहिएं।
अदालत में हुई प्रमुख टिप्पणियां
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा ने स्पष्ट किया कि न्यायिक निर्णय और सलाहकारी राय की प्रकृति अलग होती है। वहीं, अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणि ने कहा कि राष्ट्रपति द्वारा भेजा गया यह रेफरेंस पूरी तरह वैध और संवैधानिक है।
क्यों महत्वपूर्ण है यह मुद्दा?
सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि यह मामला केवल एक या दो राज्यों का नहीं, बल्कि पूरे देश की शासन व्यवस्था को प्रभावित करने वाला है। यदि विधेयकों पर निर्णय के लिए राष्ट्रपति और राज्यपाल को तय समयसीमा में बांधने का प्रावधान लागू होता है, तो इससे विधायी प्रक्रिया अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बन सकती है। दूसरी ओर, कुछ राज्य इसे केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों के माध्यम से राज्यों की विधायी स्वतंत्रता में हस्तक्षेप के रूप में देख रहे हैं।
अगली सुनवाई और संभावित परिणाम
फिलहाल अदालत यह तय करेगी कि क्या राष्ट्रपति द्वारा भेजा गया यह रेफरेंस संविधान के अनुसार स्वीकार्य है। यदि यह वैध पाया जाता है, तो अदालत इस पर विस्तृत राय देगी कि क्या कार्यपालिका के इन संवैधानिक पदों पर समयसीमा लागू की जा सकती है।