


12 जून 1975 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक बड़ा मोड़ लेकर आया। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने रायबरेली सीट से चुनी गई तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करते हुए छह साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। यह निर्णय राज नारायण द्वारा दायर उस याचिका के आधार पर आया था, जिसमें चुनावी धांधली और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के आरोप लगाए गए थे।
यह पहली बार था जब किसी भारतीय प्रधानमंत्री को कोर्ट में पेश होकर कठघरे में खड़ा होना पड़ा। 18 और 19 मार्च 1975 को इंदिरा गांधी खुद कोर्ट में उपस्थित हुईं, जहां उनसे दो घंटे तक सवाल-जवाब हुए। उन्हें एक विशेष कुर्सी दी गई थी ताकि वह जज के सामने बैठ सकें।
जस्टिस सिन्हा ने तमाम दबावों के बावजूद निष्पक्ष फैसला दिया। फैसला आने से पहले उन्होंने अपने स्टेनो के लिए कोर्ट परिसर के पास रहने की व्यवस्था की थी ताकि गोपनीयता बनी रहे। फैसले के बाद कोर्ट रूम में सन्नाटा छा गया। इंदिरा गांधी के वकील ने तुरंत स्थगन की अर्जी दी, जिसे जस्टिस सिन्हा ने 20 दिन की मोहलत के साथ स्वीकार किया।
हालांकि, इस फैसले के बाद कांग्रेस ने इंदिरा गांधी को फिर से अपना नेता चुना और उन्होंने 25 जून 1975 को देश में आंतरिक आपातकाल घोषित कर दिया। इसके साथ ही मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगाई गई और विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया।
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इस केस में गवाही देने वालों में लालकृष्ण आडवाणी, कर्पूरी ठाकुर और एस निजलिंगप्पा शामिल थे। इंदिरा गांधी का पक्ष एस सी खरे ने रखा, जबकि राज नारायण की ओर से शांति भूषण ने दलीलें दीं। यह मुकदमा पहले ब्रिटिश जज विलियम ब्रूम के समक्ष सूचीबद्ध था, लेकिन उनके सेवानिवृत्त होने के बाद यह जस्टिस सिन्हा को सौंपा गया।
25 जून की रात को जब आपातकाल की घोषणा हुई, तब लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी बेंगलुरु में थे। उन्हें फोन पर इसकी जानकारी मिली और दोनों ने स्वेच्छा से गिरफ्तारी दी। इस घटना ने भारत की राजनीति और लोकतंत्र को गहरे स्तर पर प्रभावित किया।