


डॉ. अंबेडकर ने क्यों कहा था, आरक्षण बैसाखी नहीं, सहारा है? जानिए असली मंशा
नई दिल्ली। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती पर एक बार फिर यह सवाल सामने है कि उन्होंने आरक्षण को केवल 10 वर्षों के लिए क्यों प्रस्तावित किया था और क्या वास्तव में उनकी यही मंशा थी? इस पर आज भी सामाजिक और राजनीतिक चर्चाएं होती हैं।
आरक्षण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में आरक्षण की नींव डॉ. अंबेडकर से पहले भी रखी जा चुकी थी। 1882 में हंटर आयोग के दौरान महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मांग की थी। 1908 में ब्रिटिश सरकार ने पहली बार कुछ समुदायों को सरकारी सेवाओं में आरक्षण दिया। यह सिलसिला आज तक जारी है।
डॉ. अंबेडकर की सोच और उद्देश्य
संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से आरक्षण की व्यवस्था को स्वीकार किया। उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक समाज में बराबरी नहीं आती, तब तक समान अवसर उपलब्ध करवाना जरूरी है।
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10 साल की समय-सीमा का सच
यह धारणा पूरी तरह सही नहीं है कि डॉ. अंबेडकर ने आरक्षण को केवल 10 वर्षों तक लागू करने की बात कही थी। दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 334 के तहत संसद और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटों का आरक्षण 10 वर्षों तक निर्धारित किया गया था। यह समयसीमा संसद के संशोधनों के ज़रिए समय-समय पर बढ़ाई जाती रही है।

डॉ. अंबेडकर का दृष्टिकोण
डॉ. अंबेडकर का उद्देश्य था – सामाजिक न्याय की स्थायी स्थापना। उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि आरक्षण किसी वर्ग के स्थायी लाभ का जरिया नहीं होना चाहिए, बल्कि यह एक ऐसा सहारा हो जो वंचित वर्गों को उठ खड़ा होने का अवसर दे। उनका यह कथन, “आरक्षण बैसाखी नहीं, सहारा है,” इसी सोच का परिचायक है।
वर्तमान में आरक्षण की स्थिति
आज आरक्षण केवल एक सामाजिक नीति नहीं, बल्कि एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी बन चुका है। कई वर्गों के लिए यह स्थायित्व का प्रतीक बन गया है, जबकि इसकी मूल भावना सामाजिक समावेश और बराबरी थी।
निष्कर्ष
डॉ. अंबेडकर ने आरक्षण को एक स्थायी अधिकार के रूप में नहीं, बल्कि एक सुधारात्मक कदम के तौर पर देखा था। उनका मानना था कि जब तक बराबरी नहीं आ जाती, तब तक विशेष अवसर देने होंगे। लेकिन उन्होंने यह भी साफ कहा था कि इसकी समय-समय पर समीक्षा आवश्यक है।
आज जब हम उनके विचारों को याद करते हैं, तो यह जरूरी है कि हम आरक्षण को उसी नजरिए से देखें – एक सहारा, जो जरूरतमंद को आगे बढ़ने का अवसर देता है, न कि पीढ़ियों तक बनी रहने वाली बैसाखी।