1980 के दशक में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर के रूप में मनमोहन सिंह ने देश की आर्थिक और बैंकिंग प्रणाली को नया आयाम दिया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1982 में योजना आयोग के सदस्य-सचिव के रूप में उनके कार्य को देखते हुए उन्हें आरबीआई गवर्नर नियुक्त किया। उनका कार्यकाल 16 सितंबर 1982 से 14 जनवरी 1985 तक रहा।
आरबीआई में अहम सुधार और उनके मतभेद:
मनमोहन सिंह ने बैंकिंग और मौद्रिक नीतियों में कई अहम सुधार किए। उन्होंने वैधानिक तरलता अनुपात (SLR) को बढ़ाने के सरकारी प्रस्ताव का विरोध किया, जिससे बैंकों की स्वायत्तता बनी रहे। इसके अलावा, विदेशी बैंक ‘बैंक ऑफ क्रेडिट एंड कॉमर्स इंटरनेशनल’ (BCCI) को भारत में लाइसेंस देने के मुद्दे पर तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के साथ उनके गहरे मतभेद रहे।
इस्तीफा और सरकार का हस्तक्षेप:
मतभेदों के चलते मनमोहन सिंह ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन सरकार ने उन्हें मनाकर पद पर बनाए रखा। इसी दौरान उन्होंने शहरी बैंकिंग विभाग की स्थापना और रिजर्व बैंक कानून में नए अध्याय जोड़े।
कार्यकाल का अचानक अंत:
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद, मनमोहन सिंह को जनवरी 1985 में आरबीआई से हटाकर योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया गया।
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बैंकिंग में सुधार के प्रति प्रतिबद्धता:
पुणे में 1984 में दिए गए एक भाषण में उन्होंने बैंकिंग प्रणाली में ढांचागत सुधारों की आवश्यकता पर जोर दिया। उनके अनुसार, बैंकिंग क्षेत्र को देश के विकास में मुख्य भूमिका निभानी चाहिए।
विशेष योगदान:
- बैंकिंग सुधारों की मजबूत नींव रखी।
- वित्तीय नीतियों में पारदर्शिता और स्वायत्तता को महत्व दिया।
- सरकार के दबावों के बावजूद बैंकों के अधिकारों की रक्षा की।