

बीकानेर। राखी बंधन का नहीं, यह मुक्ति का पर्व है। भय से, वैराग्य से मुक्ति दिलाता है। भाई और बहन के बीच स्नेहशीलता होती है, इससे स्नेह का प्रवाह बहता है। श्री शान्त क्रान्ति जैन श्रावक संघ के 1008 आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने यह उद्गार सेठ धनराज ढ़ढ्ढा की कोटड़ी में नित्य प्रवचन में व्यक्त किए। महाराज साहब ने कहा कि भारत पर्व प्रधान देश है। देश में कई तरह के पर्व मनाए जाते हैं। कुछ लौकिक होते हैं और कुछ अलौकिक पर्व होते हैं। आज रक्षा बंधन है, यह कर्तव्य, प्रेम और दायित्व का पर्व है। हालांकि राखी के धागे कच्चे होते हैं, जो कुछ दिनों बाद टूट जाते हैं। लेकिन बहन हर भाई से यह आशा करती है कि वह उसकी वक्त पडऩे पर रक्षा करेगा। जैन धर्म और दर्शन में ही रक्षा को मानता आया है। जैन धर्म में यह पर्व अत्यंत आस्था और उत्साह का प्रतीक माना जाता है।
आचार्य श्री ने बताया कि जैन धर्म में रक्षा बंधन का बड़ा महत्व है। आज ही के दिन विष्णुकुमार मुनि ने सात सौ साधुओं की रक्षा की थी। जैन धर्म में रक्षा पर्व मनाने का विधान इसलिए है, इस पर आचार्य अंकंपन और मुनि विष्णुकुमार की कथा का वर्णन किया।
आचार्य श्री विजयराज जी महाराज साहब ने कहा कि भाई- बहन को, पिता पुत्र को सब एक दूसरे को रक्षा का वचन देते हैं। जैन धर्म सबको बचाने की बात करता है। जैन धर्म में तो जीव की हिंसा सोचना भी पाप है। आचार्य श्री ने कहा कि मैं एक ही बात कहता हूं और हमेशा, हर जगह कहता हूं कि जीव को बचाओ, जीव के प्रति दया के भाव रखो। जीव बचेगा तो हम सब बचेगें, आज दुनिया पर बहुत बड़ा संकट है और वह संकट है जलवायु परिवर्तन का, प्रकृति में बढ़ रहे असंतुलन के कारण जीवों पर संकट आ रहा है। और इस संकट से बचने के लिए जरुरी है कि प्रकृति में संतुलन स्थापित हो, जब तक प्रकृति में संतुलन नहीं आएगा, जीवन नहीं बचेगा, हम भी सुरक्षित नहीं रहेंगे। इसलिए जीवों पर दया करो, जीवों का ख्याल रखो।

महाराज साहब ने कहा कि हम सब को यह धारणा मन में रखनी चाहिए कि हम शासन की प्रभावना पूरे मनोयोग से करें। महाराज साहब ने सभी महासती एवं मुनियों को ज्ञान, दर्शन, चरित्र, संयम और साधना में आगे बढऩे का आशीर्वाद दिया और भजन ‘संयम सुख रो कंई कहणो, जिन आज्ञा में आगे रहणो, इन्द्रियां ने वश में करणी, सूरां रे मार्ग चलणो जी’ सुनाकर प्रवचन विराम से पूर्व जैन धर्म में रक्षा बंधन के महत्व को इंगित करती पौराणिक कथा के बारे में बताया।
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पौराणिक काल में आचार्य अकंपन सात सौ मुनियों के साथ विहार करते हुए उज्जैनी राजा के यहां पहुंचे, जहां के दीवान ने जाकर वहां के राजा से कहा कि नगर में साधु पधारे हैं। राजा ने उनसे मिलने की इच्छा जताई। इस पर दीवान ने कहा कि वह तो मैले कपड़े पहने रहते हैं, नहाते तक नहीं है। राजा ने दीवान को टोका और ऐसा ना कहने के लिए बोला। महाराज ने बताया कि दीवान नास्तिक था और धर्म-कर्म में उसकी आस्था नहीं थी। उज्जैनी राजा के आने का समाचार जैसे ही आचार्य अकंपन को मिला, आचार्य ने अपने शिष्यों को आगाह किया कि राजा आ रहे हैं, उनके साथ जो दीवान आ रहे हैं, वह नास्तिक हैं, हमें उनसे शास्त्रार्थ से बचना है, इसलिए सभी शिष्य ध्यान-साधना में लीन रहें। कहते हैं कि जब राजा अपने दीवान के साथ आया तब सब साधु ध्यान साधना में लीन थे। इस पर दीवान ने उनका खूब उपहास उड़ाया। लेकिन राजा ने माना कि वह बहुत पहुंचे हुए साधु हैं, राजा उनके दर्शन कर वहां से चले गए। इस दौरान बताते हैं कि आचार्य अकंपन का एक शिष्य गोचरी के लिए गया हुआ था। उसे अपने गुरु का आदेश ध्यान नहीं था, रास्ते में दीवान उनसे मिले और खूब भला-बुरा कहा, इस पर उस शिष्य ने ऐसे तर्क देकर सब की बोलती बंद कर दी थी। इससे दीवान लोग बहुत क्रोधित हुए और आक्रोश की अग्रि से जलने लगे। उन्होंने इसका बदला लेने की सोची और सभी साधुओं को मौत के घाट उतारने का निर्णय लिया। दूसरी ओर जब आचार्य अकंपन को पता चला कि शिष्य ने ऐसा किया है। उन्हें पता चल गया कि साधु खतरे में है। उन्होंने उस शिष्य से कहा कि तुमने यह किया है तो एक काम करो, जिस जगह तुम उनसे मिले वहीं जाकर तप करो, और जो भी कर्म है, उसे सहन करो। आचार्य की आज्ञा से शिष्य वहीं पहुंच गया। रात में सभी दीवानों ने सब साधुओं को मारने की सोच कर निकले, रास्ते में वही शिष्य मिला। इस पर उन्होंने उसे मारने के लिए तलवार निकाली और जैसे ही हवा में तलवार उठी, कहते हैं कि वह वहीं की वहीं रह गई और सभी जड़वत हो गए। रात भर सभी जैसे थे उसी अवस्था में पड़े रहे। सुबह मार्ग पर जब लोगों का आवागमन हुआ तब देखा कि दीवान जड़वत पड़े हैं। इस पर राजा को सूचित किया गया, राजा ने देखा तो माजरा समझ गए, उन्होंने सभी को फटकार लगाई। इसके बाद सभी साधु हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। इस बीच राजा ने दीवानों को देश से निकाल दिया। दीवान भी हस्तिनापुर पहुंच गए और वहां के राजा को अपने बल, कौशल और चातुर्य से प्रसन्न कर लिया। एक समय ऐसा आया जब राजा उनसे प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया। दीवानों ने उस वक्त यह कहकर कि वक्त आने पर महाराज से मांग लेंगे। महाराज ने स्वीकार कर लिया। एक दिन आचार्य अकंपन अपने शिष्यों के साथ विहार करते-करते हस्तिनापुर पहुंच गए। दीवानों ने उन्हें पहचान लिया और फिर उनके मन में ईर्ष्या और क्रोध की भावना घर कर गई। उन्होंने उचित अवसर जान वरदान में राजा से सात दिन के लिए राज्य करने का अधिकार मांग लिया। राजा ने अपना वचन निभाया और उन दीवानों ने एक यज्ञ किया। आचार्य अकंपन को जब इसका पता चला तो वे समझ गए कि अब सब साधुओं का जीवन खतरे में है। दूसरी ओर अन्य ऋषि के माध्यम से जब मुनियों पर किए जा रहे उपसर्ग किया जा रहा है। वह हस्तिनापुर पहुंचे और राजा पद्ममराय को धिक्कारा, इस पर राजा ने पूरा घटनाक्रम बताया। बाद में कहते हैं कि विष्णुकुमार मुनि ने बावन अंगुल का शरीर धारण कर ब्राह्मण वेश में दीवान के पास गए और यज्ञ में दान स्वरूप साढ़े तीन पग जमीन मांगी। जैसे ही उसने हां भरी मुनि विष्णुकुमार ने अपना विशाल दिव्य रूप प्रकट किया और तीन पैर में धरती, आकाश और सागर तीनों नाप लिए, बाद में जो आधा पैर बचा उसे दीवान पर रखा तब उसे भगवान की महिमा का ज्ञान हुआ। इस प्रकार उन्होंने सात सौ साधुओं का जीवन उपसर्ग होने से बचा लिया।